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चमत्कारिक शुभ लाभ आपके जीवन में

उमेश पाण्डे

प्रकाशक : भगवती पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :78
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 767
आईएसबीएन :81-7775-028-3

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प्रस्तुत है जीवन में शुभ लाभ के महत्व...

Chamatkarik Subh-Labh

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

दो शब्द

भारतीय महात्माओं ने, हमारे पूर्वजों ने मानवमात्र के कल्याणर्थ अनेकानेक उपायों का वर्णन किया है जो कि हमारे प्राचीन ग्रंथों में भरे पड़े हैं। ये उपाय सम्पन्न करने में तो सरल हैं ही, परम प्रभावी भी हैं। किन्तु वर्तमान समय में मनुष्य के पास इतना समय नहीं है कि उन उपायों को विधिवत् सम्पन्न कर सकें। आज का व्यक्ति अत्यधिक परेशान भी रहता है और इसीलिये अपनी परेशानियों को दूर करने हेतु ज्योतिष, वास्तु, फेंगशुई, आदि विधाओं का सहारा लेने को मजबूर हो जाता है जिसमें उसका पैसा भी खर्च होता है। वास्तु वैज्ञानिकों की सलाह अथवा फंगशुई के महँगे साधनों का योग्य प्रयोग एक गरीब तो सोच भी नहीं सकता है। ऐसे में हमारे पूर्वजों द्वारा कहे हुए उपायों को सम्पन्न करके सहज ही लाभान्वित हुआ जा सकता है।
इस पुस्तक में मैंने कुछ अत्यन्त ही सरल उपायों को आपके समक्ष प्रस्तुत किया है, जिन्हें सम्पन्न करके घर में सुख-शान्ति एवं समृद्धि शनै: शनै: आने लगती है। इन उपायों के पीछे छिपे वैज्ञानिक रहस्यों को भी मैंने स्पष्ट करने का प्रयास किया है। संभव है, इनके पीछे विलुप्त वैज्ञानिक रहस्य इससे भी कहीं दीर्घ हों। फिर भी इतना तो अवश्य है कि मात्र इन प्रयोगों अथवा तथ्यों को आत्मसात् कर एवं व्यवहार में लाकर सुख-शान्ति, स्वास्थ्य एवं समृद्धि को आसानी से प्राप्त किया जा सकता है-ऐसा मेरा विश्वास है।
अंत में, मैं भगवती पॉकेट बुक्स के श्री राजीव अग्रवाल का हृदय से आभारी हूँ जिनकी विशेष प्रेरणा एवं आत्मीय योगदान से यह कृति आपके समक्ष प्रस्तुत हो सकी है। साथ ही मैं श्री सुनील सिद्ध, श्री प्रबोध चन्द्र शर्मा, डॉ. अशोक सोकल, श्री रवि गंगवाल, डॉ. एस. आर. उपाध्याय, डॉ. एस. एल. गर्ग, डॉ, ओ. पी. जोशी, श्री श्रीकृष्ण तिवारी (देवला), श्री नागेश्वर बाबा, धरगाँव, डॉ. पवनकुमार (मुम्बई), श्रीमती रूबी अग्रवाल (आगरा), श्री एस. के. जोशी एवं. डॉ. प्रफुल्ल दवे का भी हृदय से आभारी हूँ जिन्होंने समय-समय पर इस पुस्तक को पूर्णता की ओर पहुँचाने में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।
पुस्तक के संबंध में आपके सुझावों एवं विचारों की मुझे प्रतीक्षा रहेगी।

 

उमेश पांडे

 

1

 

आयन्स क्या हैं ?

 

सन् 1808 में डॉल्टन नामक एक रसायन शास्त्री ने एक सिद्धान्त प्रतिपादित किया, जिसे ‘डॉल्टन का परमाणुवाद’ कहा गया। इस सिद्धान्त में यूँ तो 7-8 बिन्दुओं का वर्णन किया गया था, किन्तु उनमें से मूल बिन्दु एक था। वो ये कि ‘प्रत्येक पदार्थ कई अतिसूक्ष्म कणों से मिलकर बना होता है, जिन्हें परमाणु कहते हैं’। डॉल्टन ने अपने सिद्धान्त में ये भी स्पष्ट किया कि परमाणु विद्युन्मय उदासीन होते है अर्थात उनमें ऋण तथा धन के आवेश बराबर मात्रा में पाये जाते हैं। काफी समय तक डॉल्टन के परमाणुवाद को मान्यता मिलती रही, किन्तु साथ ही साथ परमाणु के संबंध में और भी विस्तृत अध्ययन जारी रहे। परिणाम यह हुआ कि कुछ वैज्ञानिकों के अथक प्रयासों के कारण परमाणु में 3 प्रकार के कणों की उपस्थिति की जानकारी हुई (हालाँकि बाद में इन तीन प्रकारों के अलावा भी अन्य प्रकार के सूक्ष्म कणों की उपस्थिति का होना, परमाणु के अर्न्तगत पाया गया)। ये तीन प्रकार के कण क्रमश: इलेक्ट्रॉन, प्रोटॉन तथा न्यूट्रॉन कहलाये। इसमें से इलेक्ट्रॉन ऋणावेशित कण थे, प्रोटॉन धनावेशित कण थे। इसी के साथ-साथ यह तथ्य भी स्पष्ट हुआ कि एक परमाणु में जितने इलेक्ट्रॉन्स अर्थात् जितने ऋणावेशित कण पाये जाते हैं, उतने ही प्रोटॉन्स अर्थात् धनावेशित कण भी होते हैं। यही कारण है कि प्रत्येक परमाणु विद्युन्मय उदासीन होता है।
उदाहरण के तौर पर केलोरीन के परमाणु में 17 इलेक्ट्रॉन (Electrons), 17 प्रोटॉन (Protons) तथा 17 न्यूट्रॉन (Neutrons) होते हैं। इनमें से प्रोटॉन्स तथा न्यूट्रॉन्स तो उसके केन्द्रीय भाग में होते हैं, जिसे कि नाभिक कहते हैं, जबकि इलेक्ट्रॉन्स नाभिक के चारों ओर निश्चित कक्षाओं में घूमते रहते हैं। 17 प्रोटॉन्स
(अर्थात् 17 धनावेशित कणों) एवं 17 इलेक्ट्रॉन्स (अर्थात् 17 ऋणावेशित कणों) के कारण विद्युत होते हुए भी उदासीन होता है। क्लोरीन परमाणु का आरेख अग्रानुसार है-
अब, हम परमाणु किस प्रकार ‘आयन्स’ में बदलता है, यह देखते हैं। जैसा कि ऊपर के विवरण में स्पष्ट है कि किसी भी परमाणु में धन तथा ऋण आवेशित कण बराबर संख्या में रहते हैं। जिसके कारण वह उदासीन रहता है, किन्तु जैसे ही किसी परमाणु में से एक या अधिक इलेक्ट्रॉन बाहर निकल जाते हैं अथवा बाहर से इलेक्ट्रॉन आकर उसमें शामिल हो जाते हैं, वैसे ही वह ‘आयन’ (Ion) में परिवर्तित हो जाता है। जब किसी परमाणु में से इलेक्ट्रॉन बाहर चले जाते हैं, तब वह धनायन (Positive ion) में बदल जाता है। और इसी प्रकार जब किसी परमाणु में कहीं बाहर से आकर इलेक्ट्रॉन शामिल हो जाता है। इस बात को हम निम्न उदाहरणों से समझते हैं-
(अ) माना कि क्लोरीन परमाणु है जिसमें 17 इलेक्ट्रॉन (ऋण आवेश) और 17 प्रोटॉन (धन आवेश) हैं। अब इसमें बाहर से आकर 1 इलेक्ट्रॉन शामिल हो जाता है, तब उस स्थिति में क्लोरीन के परमाणु में 1 इलेक्टॉन की अर्थात् 1 ऋण आवेश की वृद्धि हो जाती है। अत: वह ऋण आवेशित हो जाता है। यही क्लोरीन का ऋणायन (Negative ion) है। यह अग्र आरेख से स्पष्ट है-(देखिये चित्र
क्रं.2)
इसे सामान्यत: ऐसे लिखा जा सकता है-
Cl +1 इलेक्ट्रॉन → Cl-
(ब) हम हाइड्रोजन के परमाणु को लेते हैं। इस परमाणु में केवल एक प्रोटॉन तथा एक इलेक्ट्रॉन होता है, जिसके कारण यह उदासीन अवस्था को प्राप्त किये रहता है। यह निम्न चित्र से स्पष्ट है-
अब किसी कारण से इसका इलेक्ट्रॉन कूदकर इससे बाहर चला जाता है। उस परिस्थिति में केवल 1 प्रोटॉन यानि एक धन आवेश ही रह जाता है और इसीलिये यह धनायन में परिवर्तित हो जाता है-जैसा कि निम्नानुसार स्पष्ट है-
इस प्रकार, कैसे ऋणायन अथवा धनआयन बनते हैं यह स्पष्ट हो जाता है।
उपरोक्त विवरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि धनायन सदैव ‘लूजर’ (Looser) अर्थात् ‘हारा हुआ’ होता है। जबकि ऋणायन सदैव ‘गैनर’ (Gainer) अर्थात् ‘प्राप्तकर्ता’ होता है। इसीलिये ऋणायन हमारे लिये लाभदायक अर्थात् धनात्मक ऊर्जा के कारक होते हैं तथा धनायन हमारे लिये हानिकारक अर्थात् ऋणात्मक उर्जा के कारक होते हैं। इस तथ्य को आगे आये हुए विवरण हेतु हमें अपने मस्तिष्क में रखना होगा।
(i) जिस स्थान पर धनायनों की अधिकता होती है, वहाँ नाना प्रकार की ऋणात्मक बातें होती हैं। उदाहरण के तौर पर अधिक धनायनों से युक्त स्थानों पर रहने वाले अत्यधिक बीमार रहते हैं, उनका मानसिक बल कमजोर होता है तथा अधिक बीमारियों के कारण उनको अधिक धन हानि उठानी पड़ती है। बीमारी का धन से सीधा संबंध है।
(ii) पैन्सिल्वेनिया के ग्रेजुएट अस्पताल तथा फिलाडेल्फिआ के फैंकफोर्ड अस्पताल में श्नवसनरोग से पीड़ित का इलाज़ उन्हें ऋणायन जनरेटर्स के माध्यम से जब ऋणायन देकर किया गया तो उन्हें तुरन्त बाद ही ज्यादा धनात्मक परिणाम सामने आये। यूरोप के कई देशों में ‘ऋणायन चिकित्सा पद्धति’ (Negative-ion therapy) प्रचलन में है।
(iii) ब्राजील के अस्पतालों में ब्रान्काईटिस, अस्थमा, एलर्जी आदि रोगों का उपचार मशीनों के माध्यम से किया जाता है। ऋणायन के प्रभाव में उन्हें कम समय तक की उपचार करना पड़ता है तथा आवश्यकता से कम औषधियों से ही रोगी उपचारित हो जाते हैं।
(iv) जिन व्यक्तियों को ऋणायन पर्याप्त मात्रा में प्राप्त होते हैं, उन व्यक्तियों में ‘सिरेटोनिन’ (Seratonin) तथा ‘हिस्टामाईन’ (Histamine) नामक पदार्थ आवश्यक मात्रा में सतत् उत्पन्न होते रहते हैं, जिनके कारण उनके शरीर में अनेक जैवरासायनिक क्रियाओं का संतुलन बना रहता है। ज्ञातव्य है कि उपरोक्त दोनों पदार्थों के असंतुलन से निम्नलिखित लक्षण तो संबंधित व्यक्तियों में अल्प समय में ही प्रकट होने लगते हैं-
1. श्वासोच्छवास की क्रिया में उतार-चढ़ाव, 2. चिड़चिड़ापन, 3. अनिद्रा एवं दु:स्वप्न, 4.स्मृति भ्रंश, 5. फेफेड़ों की क्षमता में कमी, 6.शिरोपीड़ा एवं माईग्रेन, 7. सायनस, 8. शरीर की इम्यून प्रणाली में ऋणात्मकता, 9. बेचैनी, 10. शरीर के कुछ हार्मोन्स का असंतुलन, 11. डिप्रेशन एवं अधिक तनाव, 12. रक्तचाप में गड़बड़ी, 13. शरीर की कार्य क्षमता में कमी, कमजोरी, 14. मस्तिष्क के ध्यान (Concentration) में कमी, 15. गले में तकलीफ; अस्थमा, कफ विकार, 16. शरीर में ऋणात्मक परिवर्तन।
विशेष रूप से उपरोक्त बातें ऑक्सीजन ऋणायनों की कमी के कारण होती हैं। शहरी वातावरण में सामान्यत: ऑक्सीजन ऋणायनों में कमी होती जा रही है।
(v) जिन शहरों में अत्याधिक प्रदूषण होता है, वह ऋणायनों का प्रतिशत बहुत ज्यादा घटने लगता है। परिणामस्वरूप वहाँ के रहवासियों में चिड़चिड़ापन, मानसिक तनाव, मानसिक रोग, रक्तचाप, स्मृतिभ्रंश, अनिद्रा, उच्चाट इत्यादि व्याधियों के आक्रमण से सुरक्षित रहते हैं।
(vi) एयर कण्डीशनिंग अथवा कमरे को कृत्रिम उपायों द्वारा गर्म रखने पर वहाँ से ऋणायन लुप्त होने लगते हैं। परिणाम स्वरूप वहाँ पर रहने वालों अथवा बैठने वालों के मानसिक एवं भौतिक शरीर संतुलन में धीरे-धीरे ऋणात्मक परिवर्तन आने लगता है। किसी उद्योग में इस प्रकार की व्यवस्था वहाँ अवश्य ही नाना प्रकार की ऋणात्मकताओं के दर्शन कराती है। एक एयरकन्डीशन्ड कार में यात्रा करने वालों और एक खुली कार में यात्रा करने वालों अर्थात् प्राकृतिक हवा प्राप्त करने वालों के मानसिक और शारीरिक स्तर का अध्ययन करने पर यह आसानी से स्पष्ट हो जाता है कि खुली कार में यात्रा करने वाले, यात्रा में कम थकान महसूस करते हैं तथा यात्रा के दौरान भी उनके व्यवहार तथा अन्य स्थितियाँ बेहतर होती हैं। किसी सैंट्रली एयर कन्डीशन्ड भवन की भी यही स्थिति होती है।
सोयका (Soyka) ने अपनी पुस्तक ‘द आयन इफेक्ट’ (The ion effect) में धनायन एवं ऋणायों के शरीर पर होने वाले प्रभावों का वर्णन किया है। फर्क यह है कि उन्होंने अपने अधिकांश भाग को आधुनिक स्पर्श दिया है जबकि हमारे पूर्वजों ने सैकड़ों ऐसे नियमों का प्रतिपादन किया है जो कि पालन करने में आसान एवं परम प्रभावी हैं। वैज्ञानिकता उनमें अंतर्निहित है जिसे पूर्वजों ने समझाने की कभी भी आवश्यकता महसूस नहीं की। इस पुस्तक की विषय-वस्तु उन्हीं तथ्यों में से कुछ पर केन्द्रित की गई है मात्र इस उद्देश्य से कि पाठक इससे लाभान्वित हों।

 

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कपूर दहन और ऋणायन

 

भारत में अति प्राचीन काल से विभिन्न देवी-देवताओं की आरती करने का विधान है। आरती के समय कपूर भी जलाया जाता है तथा विभिन्न भक्तजनों को आरती दी जाती है। इन सब के पीछे मात्र यह उद्देश्य था कि किसी भी स्थान विशेष पर कुछ समय तक कपूर का दहन हो तथा साधक का परिवार लाभान्वित हो। दरअसल कपूर के दहन से उत्पन्न वाष्प में वातावरण को शुद्ध करने की जबरदस्त क्षमता होती है। इसकी वाष्प में जीवाणुओं, विषाणुओं तथा अतिसूक्ष्म से सूक्ष्मतर जीवों को शमन करने की शक्ति होती है। इन सूक्ष्म जीवों को प्राचीन ग्रंथों में ही भूत, पिशाच, राक्षस आदि की संज्ञा दी गई है। अत: कपूर को घर में नित्य जलाना परम हितकर है। इसको नित्य जलाने से ऋणावेशित आयन्स घर में बढ़ते हैं परिणामस्वरूप निम्नलिखित लाभ होते हैं-
1. घर का वातावरण शुद्ध रहता है; बीमारियाँ उस घर में आसानी से आक्रमण नहीं करती हैं।
2. दु:स्वप्न नहीं आते।
3. देवदोष एवं पितृदोषों का नाश होता है।
4. घर में अमन शान्ति बनी रहती है।
इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को ज्यादा नहीं तो कम से कम कपूर का एक छोटा-सा टुकड़ा नित्य घर में अवश्य जलाना चाहिये। हमारे पूर्वजों ने पूजा के समय कपूर से आरती उतारने का विधान बना रखा है। उसके पीछे भी महज यही उद्देश्य निहित है कि 5-7 मिनट अर्थात् जितने भी समय तक भगवान की आरती उतारी जावे, उतने समय तक पर्याप्त कपूर का दहन होवे, जिससे कि अधिकाधिक वातावरण शुद्ध हो; वातावरण में धनात्मक ऊर्जा बढ़े।

 

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भूशयन से भाग्य वृद्धि

 

यह एक सर्वविदित तथ्य है कि हमारी पृथ्वी एक विशाल चुम्बक है। चुम्बकीय सिद्धान्त के अनुसार यह भी एक तथ्य है कि जिस प्रकार कोई भी पदार्थ अनेक छोटे-छोटे कणों से मिलकर बना होता है, ठीक उसी प्रकार एक चुम्बक भी कई अति सूक्ष्म कणों से मिलकर बना होता है, जिन्हें चुम्बकीय अणु कहते हैं। वेबर नामक भौतिकशास्त्री के द्वारा प्रतिपादित इस सिद्धान्त के द्वारा यह भी सिद्ध किया गया है कि एक चुम्बक की भाँति ही चुम्बकीय अणु में भी उत्तर तथा दक्षिण दो ध्रुव होते हैं तथा उसका व्यवहार भी पूर्णत: चुम्बक के समान ही होता है। इसी आधार पर हम यह कह सकते हैं कि पृथ्वी का आयनीकरण का भी कारक होता है तथा हमारा रक्त लौह तत्व से युक्त होता है। इन्हीं वैज्ञानिक तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में कहा जा सकता है कि पृथ्वी के अधिकाधिक सम्पर्क में रहने वाला पृथ्वी के चुम्बकत्व को ग्रहण करता है। उसमें ऋणावेशित आयन्स की वृद्धि होती है। अत: प्रत्येक व्यक्ति को प्रतिदिन लगभग आधे घण्टे के लिये नंगी जमीन पर अवश्य ही शयन करना चाहिए अर्थात् घर के किसी भी कमरे के फर्श पर (जिस पर किसी भी प्रकार का कार्पेट न बिछा हो, कोई गंदगी न लगी हो), उसे अवश्य ही शयन करना चाहिये। सम्भव हो तो उसकी पीठ या शरीर का अधिकाधिक सम्पर्क भूमि से रहना चाहिये। ऐसा करने से उसे निम्नलिखित लाभ होते हैं-
(वैसे शयनकर्ता को कुछ समय के लिये पहले पीठ के बल शयन करना चाहिये और फिर कुछ समय के लिये पेट के बल शयन करना चाहिए।)
1. उसके शरीर में एक विशेष प्रकार की उर्जा का विकास होता है, जिसके परिणामस्वरूप उसमें रोगाणुओं के प्रति प्रतिरोध उत्पन्न हो जाता है। अत: उसका शरीर तथा स्वास्थ्य उत्तम रहता है।
2. उसमें विशिष्ट प्रकार की स्फूर्ति का विकास होता है, मस्तिष्क की उदासीनता और खिन्नता धीरे-धीरे लुप्त होने लगती है तथा वह सदैव प्रफुल्लित बना रहता है।
3. उसमें इस प्रकार के सूक्ष्मायन विकसित हो जाते हैं जो कि अन्य ग्रहों से आने वाले ऋणात्मक विकिरणों का शमन करने में सक्षम होते हैं और इस प्रकार व्यक्ति पर किसी भी ग्रह से होनेवाली पीड़ा में कमी आती है। परिणामस्वरूप स्वास्थ्य के साथ-साथ उसकी उन्नति भी होती है।
इसलिये प्रत्येक व्यक्ति को प्रतिदिन कुछ समय के लिये जमीन पर अवश्य ही शयन करना चाहिये। जमीन पर नंगे पैर चलने से भी लाभ होता है।

प्रथम पृष्ठ

    अनुक्रम

  1. आयन्स क्या हैं
  2. कपूरदहन और ऋणायन
  3. भूशयन से भाग्यवृद्धि
  4. दीपक जलावें, सुखी रहें
  5. गोमूत्र से धनात्मकता
  6. गोबर और शुभत्व
  7. रॉक साल्ट से शुभत्व वृद्धि
  8. गाय के गोबर-दहन से धनात्मकता
  9. लवण स्नान और शुभत्व
  10. पीपल वृक्ष और शुभत्व वुद्धि
  11. वास्तु सिद्धान्त और धनात्मकता
  12. शुभाशुभ सूचक जीव और जड़ पदार्थ
  13. नमक से बरकत
  14. खुली जमीन से स्वास्थ्य और समृद्धि
  15. हरिद्राजल छिड़काव से शुभत्व वृद्धि
  16. सुगंध से शुभत्व
  17. भोजपत्र दहन से शुभता
  18. धातु की प्लेट लटकायें, शुभता बढ़ायें
  19. चित्र और शुभत्व वुद्धि
  20. शंख से शुभत्व
  21. केसर से धनात्मकता
  22. वनस्पति स्नान और शुभत्व
  23. शयन दिशा और शुभत्व
  24. गृह परिक्रमा से शुभत्व
  25. काष्ठ शयन और ऋणायन
  26. दिव्य वृक्ष और शुभत्व
  27. रुद्राक्ष से शुभत्व
  28. शुष्क एवं मृत पदार्थों से ऋणात्मकता
  29. आशीर्वाद और शुभत्व
  30. नक्षत्र वृक्ष एवं शुभत्व वृद्धि
  31. प्रकाश और ऋणायन
  32. कैसे शुभत्व देती है फिटकरी
  33. जड़ियों से शुभत्व वुद्धि
  34. नीबू और शुभत्व वृद्धि
  35. गोपालन और शुभता
  36. दरवाजे-खिड़कियाँ खोलें, सुखी रहें
  37. धूल कचरा और अशुभत्व
  38. मुख दिशा और शुभाशुभ
  39. पूजन से भाग्य वृद्धि
  40. सूती वस्त्रों से शुभत्व वृद्धि
  41. अशुभत्व का कारक क्रोध
  42. घण्टानाद एवं ऋणायन
  43. सर्वकार्यसिद्धि यंत्र से शुभत्व वृद्धि
  44. स्वस्तिक का निशान, कई समस्याओं का निदान
  45. इण्डियन लकी कॉइन से शुभत्व वृद्धि
  46. कुछ अन्य मिश्रित तथ्य

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